संकटमोचक 02 अध्याय 14

Sankat Mochak 02
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“बहुत उपर की चीज़ है ये यूसुफ आज़ाद, पुत्तर जी। पहेलियों में ही बात करते हैं, कई बातें तो मेरी समझ में ही नहीं आयीं”। दस मिनट बाद न्याय सेना के कार्यलय में बैठे प्रधान जी ने राजकुमार की ओर देखते हुये कहा। उनके चेहरे पर यूसुफ आज़ाद का सम्मोहन अभी भी साफ देखा जा सकता था।

“मैने तो आपको पहले ही बता दिया था उनके बारे में, प्रधान जी”। राजकुमार प्रधान जी की इस हालत का मज़ा ले रहा था।

“वो तो ठीक है, पर तुझे कैसे पता लगा कि दूरदर्शन के अधिकारियों ने ही उन्हें इस मामले के हमारे पास आ जाने की सूचना दी है?” कुछ याद करते हुये कहा प्रधान जी ने।

“इस मामले की सूचना केवल तीन पक्षों के पास थी, प्रधान जी। हम, कलाकार और वो अधिकारी जिन्होंने ये सुबूत दिये हैं अनिल खन्ना के माध्यम से हमें। हमने आज़ाद को बताया नहीं, सीधे अपने नाम से शपथपत्र देने के कारण अनिल खन्ना या ऐसे किसी कलाकार के बताने की संभावना भी बहुत कम है क्योंकि वो खुद इस मामले में सामने आने से डर रहे हैं। बच गये सिर्फ वो अधिकारी, जिन्हें इस मामले में शोर मच जाने पर भी कोई हानि नहीं क्योंकि उनका नाम कोई नहीं जानता, जबकि कलाकारों का नाम सीधे तौर से शपथ पत्रों पर लिखा हुआ है”। राजकुमार प्रधान जी की ओर देखकर मुस्कुराया और फिर शुरू हो गया।

“इसलिये मैने आज़ाद से कहा था कि हमें कोई सुबूत नहीं मिले, उनके मन को टटोलने के लिये। इसके जवाब में उन्होंने केवल उन सुबूतों का जिक्र किया जो अधिकारियों के माध्यम से आये हैं, उन्होंने एक बार भी ये नहीं कहा कि किसी कलाकार ने हमें शपथ पत्र भी दिया है। इससे स्पष्ट हो गया कि ये बात अधिकारियों ने ही बतायी है उन्हें। इसीलिये मैने उन्हें प्रभावित करने के लिये पूरे आत्मविश्वास से कह दिया कि हमें पता है ये बात उन्हें अधिकारियों ने बतायी है”। राजकुमार ने अपनी बात पूरी की और प्रधान जी को देखते हुये मुस्कुराने लगा।

“और कुछ ज़्यादा ही प्रभावित कर लिया तूने उन्हें, इसीलिये तो मुझे अपना नंबर न देकर तुझे दे दिया, और वो भी पहेली वाले अंदाज़ में”। प्रधान जी ने राजकुमार को छेड़ते हुये कहा।

“वो तो कोई बड़ी पहेली नहीं थी, प्रधान जी। आज़ाद अपना नंबर देते समय दो कारणों से पहेली वाले अंदाज़ में मुस्कुरा रहे थे। एक तो वो चाहते थे कि बदले में मैं अपना नंबर उन्हें दूं और दूसरा शायद वो चाहते हैं कि इस मामले में उनके साथ बातचीत आप नहीं, मैं ही करूं”। राजकुमार ने आज़ाद की मुस्कान का भेद खोलते हुये कहा।

“ओह, तो इसीलिये तूने फौरन उनके नंबर पर कॉल कर दिया था और वो मुस्कुराने लगे थे। पर ये बात कैसे कही जा सकती है कि वो इस मामले में न्याय सेना की ओर से तुझी से बात करना चाहते हैं?” प्रधान जी एक बार फिर दुविधा में आ गये थे।

“अगर वो ऐसा न चाहते तो अपना नंबर आपको देते, मुझे नहीं। फिर बातचीत के अंत में उन्होंने कहा था कि मुझे इस मामले में अंत तक साथ रखा जाये, ये दूसरा संकेत था कि वो मेरे साथ अधिक सहज हैं। इसका कारण शायद ये है कि उनका काम करने का तरीका बहुत गोपनीय है, मुझे शहर में अधिक लोग नहीं जानते जबकि आपको शहर के सब महत्वपूर्ण लोग जानते हैं। इसलिये वो चाहते हैं कि उनके साथ संपर्क मैं रखूं”। राजकुमार ने कहा और प्रधान जी की ओर देखते हुये मुस्कुराने लगा।

“तो इसका अर्थ वो नहीं चाहते कि मेरे उनको बार बार फोन करने पर आसपास बैठे किसी व्यक्ति को ये पता चले कि न्याय सेना के साथ उनके संबंध बहुत गहरे हो चुके हैं। यानि की इस मामले में वो पत्ते छिपा कर खेलना चाहते हैं”। प्रधान जी ने राजकुमार को छेड़ते हुये कहा क्योंकि उसे भी पत्ते छिपा कर ही खेलने की आदत थी।

“और नहीं तो क्या, अपनी शेर जैसी आवाज़ सुनी है आपने? मोबाइल फोन का स्पीकर फाड़कर भी आसपास बैठे सब लोगों को बता देती है कि प्रधान जी का फोन आया है”। राजकुमार ने भी प्रधान जी को छेड़ा।

“अजीब होते हो तुम हर समय दिमाग से चलने वाले लोग भी, सीधी बात को भी जलेबी की तरह बना देते हो। जो बात सीधी कही जा सकती है, उसे पहेलियों में कहने की क्या ज़रुरत है?” प्रधान जी ने एक बार फिर राजकुमार को छेड़ा।

“सीधा होना दिल की और टेढ़ा होना दिमाग की पहचान है, प्रधान जी। इसलिये दिल से चलने वाला आदमी अधिकतर सीधी बात और दिमाग से चलने वाला आदमी अक्सर पहेलीनुमा बातें करता है”। राजकुमार ने हंसते हुये कहा।

“और आधे लोग तो समझ ही नहीं पाते इन पहेलियों को। अपने को तो दिल से चलना ही पसंद है, जिसकी बातें बड़ी आसानी से समझ जाते हैं लोग। वैसे मेरे ख्याल में अब खाना खा लेना चाहिये, बहुत भूख लग आयी है”। प्रधान जी ने एकदम से ही बात का विषय बदलते हुये कहा।

“भूख, लेकिन अभी अभी तो आपने चाय पी है, आज़ाद के पास?” राजकुमार के स्वर में शरारत थी।

“ओये एक कप चाय से क्या बनता है, उससे तो मेरी भूख और भी बढ़ गयी है। आज चिकन खाते हैं, पुत्तर जी”। प्रधान जी के चेहरे पर चिकन का नाम लेते लेते ऐसी खुशी आ गयी थी जैसे सारे दिन की भूखी पत्नी ने करवा चौथ का चांद देख लिया हो। चिकन उनकी फेवरिट डिश थी।

“चिकन तो आप ही खायेंगे प्रधान जी, अपने को तो शाकाहारी खाना ही अच्छा लगता है। पता नहीं क्यों कुछ पल के स्वाद के लिए लोग निर्दोष जीवों की हत्या करते हैं, प्रधान जी? न्याय सेना को इन निर्दोष जानवरों के पक्ष में भी लड़ाई लड़नी चाहिये”। राजकुमार को पता था अब प्रधान जी की प्रतिक्रिया क्या होगी।

“ओये चुपकर कंजरा, अगर मेरे और चिकन के बीच में आया तो अभी निकाल दूंगा तुझे न्याय सेना से। तुझे पता है न कि न्याय सेना में चिकन खाने वालों को नापसंद करना सबसे बड़ा अपराध है”। प्रधान जी की इस बात पर दोनों ही हंस पड़े। राजकुमार ने गाड़ी की चाबी उठा ली थी।

“क्यों न चलने से पहले बाऊ जी और भाजी से मिलने का समय तय कर लिया जाये, पुत्तर जी?” प्रधान जी की इस बात को सुनते ही राजकुमार ने सिर हिलाते हुये चाबी वापिस रख दी थी।

लगभग पांच मिनट के भीतर प्रधान जी ने पंजाब ग्लोरी और सत्यजीत समाचार के कार्यालयों में फोन करके बात कर ली थी।

“बाऊ जी से चार बजे मिलने का समय लिया है, भाजी आज दफ्तर नहीं आयेंगे । अब जल्दी चलो, भूख और भी बढ़ गयी है”। प्रधान जी के कहते कहते ही राजकुमार एक बार फिर गाड़ी की चाबी उठा चुका था।

 

हिमांशु शंगारी